गंगा की व्यथा | The misery of Ganga

सड़क किनारे देखा था उसको
सड़ते-गलते कूड़े-मलबे के बीच।
स्वर्गलोकतुल्य वह अनुपम देवी
मैली कर गया कौन नीच?
उल्लास-रहित थी आस-रहित,
ग्रसित देह और मलिन सी काया,
रजत सरीखे उसके तन पर
छाई थी एक काली छाया।
रोक सकी न कौतुहल होगा
या जागी होगी मानवता।
जा बैठी मैं भी उसके संग
सांझी करने उसकी विपदा।
हरी-भरी दुर्लभ रत्नों से सज्जित
थी बड़ी मनोरम मेरी चुनरिया।
मूक हैं जो -बेबस-बेचारे
उन संतानों पर वात्सल्य चदरिया ।
जर्जर कर डाली देखो लोभी ने,
कतरा-कतरा कर नोच रहा है।
जो मैं उघड़ी हूँ तो नग्न है वह भी,
इतना भी क्यों नहीं सोच रहा है ?
पाशों में बाँधा मुझे इसने
चूका नहीं कोई भी अवसर।
शूल से चुभते हैं मेरे बदन पर
ये बारूद, इस्पात और प्रस्तर।
मैं विस्फोट पालती मौन खड़ी हूँ
पर नहीं रुकते इसके कलुषित हाथ।
कहता है विकास के मंदिर हैं
ये मेरी देह पर लगे भद्दे दाग।
नेत्रहीन है प्रस्तर बुद्धि
मुझको हलके में तोल रहा है।
चूस-चूस कर मेरा अमृत
विष मेरी रगों में घोल रहा है।
माता माता कहते कहते
निगल गया मुझे अहंकारी।
मेरे गौरव का क्षयकारी
लोभी ! पापी ! व्यभिचारी !
सौंदर्य हरा, गौरव छीना,
अब आत्मा को भी डसने को है !
सन्न हूँ मैं, अब बस दृसटा हूँ
विनाशकाल हँसने को है।
मनुपुत्र की वासना की भट्टी में
जलती-सुलगती
पृथा के बलात्कार का
निर्लज्ज-नाच-नंगा हूँ मैं !
वेद पुराण गाते नहीं थकते
जिसकी महिमा
वही पाप-निवारिणी गंगा हूँ मैं !

Punam Pal

The seeker in my does not let me rest.

Through my writings I share the lessons

I learnt during my quest. 

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